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कविता

कल की दुपहर में

राजकुमार कुंभज


कल की दुपहर में
कल की दुपहर जैसी ही धूप थी कल
चमक रही थी वह, चमक रहा था मैं
सोच रहा था मैं, सोच रही थी वह
विचार थी दुपहर, विचार था मैं
जैसे कि नींद भी एक विचार, कमीज की तरह
कोई-कोई सोचता है नींद
सोचता है कोई-कोई कमीज
कल की दुपहर जैसी ही धूप थी कल
कल की दुपहर में
शायद प्रेम नहीं था, दूर था प्रेम
अलीबाबा चालीस चोर का साम्राज्य था
हरिश्‍चंद्र नहीं था कोई भी तब
नदी बह रही थी नदी जैसी
बह रही नदी में बह रही थीं मछलियाँ
बह रही मछलियों में मचल रहा था जीवन
अनादि-अनंत
मैं कोस रहा था अँधेरे और प्रेम को
जबकि जरूरत थी छतरी
छतरी में छेद होते, तो निष्कर्ष कुछ और होते
छतरी थी, बारिश थी, प्रेम-प्रतिज्ञा थी
प्रेम प्रतिज्ञा में छेद नहीं थे
जैसे बारिश थी, छतरी थी और छतरी में छेद नहीं थे
राजधानी में राजधानी का आतंक था
फौजी बूटों की आवाजें थीं, थी सेंसरशिप भी
जासूसी निगाहों का लोकप्रिय साम्राज्य था
अमरूद उसी भाव नहीं बिक सकता था
भाव था किंतु भाव का अभाव भी था
और इसी चक्कर में मारा गया मैं
धूप थी, दुपहर थी, विचार जैसी, भाव नहीं था
मैं था कि सोच रहा था दुपहर या धूप
कल की दुपहर जैसी ही धूप थी कल
कल की दुपहर में।

 


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